
संवादगढ़ विशेष रिपोर्ट | कोरबा, छत्तीसगढ़
15 जून 2025 को साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (SECL) के चेयरमैन एवं मैनेजिंग डायरेक्टर श्री हरिराम धुन्ना ने देश की सबसे बड़ी कोयला खदान, गेवरा मेगा प्रोजेक्ट, का दौरा किया। सरकारी ट्वीट में इसे “उत्पादन, सेफ्टी प्रबंधों और मानसून तैयारियों की समीक्षा” बताया गया। लेकिन सवाल है — क्या यह दौरा सिर्फ उत्पादन बढ़ाने की कवायद था या फिर विनाश की योजना का निरीक्षण?
कोयले पर बल, पर्यावरण पर चुप्पी
दौरे में श्री धुन्ना ने “उत्पादन के साथ सेफ्टी को प्राथमिकता देने” की बात कही, लेकिन पर्यावरणीय विनाश और स्थानीय आदिवासी आबादी पर पड़ रहे प्रभाव पर एक शब्द नहीं बोला गया।
गेवरा खदान का विस्तार पिछले कुछ वर्षों में हसदेव अरण्य और आसपास के जंगलों को निगलता जा रहा है, जिससे न सिर्फ़ वनों की कटाई हुई है, बल्कि जल स्रोतों का भी विनाश हो रहा है।
मानसून की ‘तैयारियाँ’ या और अधिक खुदाई की योजना?
SECL ने पोस्ट में बताया कि मानसून के दृष्टिगत तैयारियों की समीक्षा की गई ताकि बारिश के दौरान कार्य बाधित न हो।
लेकिन यहां सवाल उठता है: क्या मानसून में भी कोयला खनन ज़ारी रखने की योजना वास्तव में सुरक्षा के नाम पर पर्यावरण को कुचलने का औजार बनती जा रही है?
श्रमिकों की सुरक्षा या मात्र औपचारिकता?
फोटो में अधिकारियों के साथ सुरक्षात्मक कपड़े पहने मज़दूर दिखते हैं — मगर पिछले वर्षों की दुर्घटनाओं का रिकॉर्ड बताता है कि श्रमिक सुरक्षा सिर्फ़ कागज़ों पर होती है, ज़मीनी हक़ीकत में नहीं। क्या इस दौरे में दुर्घटनाओं की जवाबदेही तय की गई? या सिर्फ़ प्रेजेंटेशन देखा गया?
स्थानीय जनता को क्या मिला?
SECL के इस दौरे में न तो किसी जनसुनवाई की बात हुई, न ही विस्थापित परिवारों के पुनर्वास या मुआवज़े का ज़िक्र।
क्या कोरबा, रायगढ़, और हसदेव के आदिवासी अब सिर्फ़ आंकड़े हैं?
📢 संवादगढ़ की मांग:
- गेवरा खदान के विस्तार की एक स्वतंत्र, पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।
- स्थानीय जनप्रतिनिधियों और विस्थापितों की जनसुनवाई अनिवार्य की जाए।
- SECL और राज्य सरकार, CSR और मुआवज़े से संबंधित अपनी पारदर्शिता रिपोर्ट जारी करें।
- मानसून में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए जब तक पर्यावरणीय जोखिम का आकलन न हो।
संवादगढ़ का सवाल:
क्या ‘समीक्षा दौरे’ सिर्फ़ फोटो सेशन हैं?
या कभी इन खनिज क्षेत्रों के धरती, जंगल और जनमानस की चिंता भी सरकारी प्रोटोकॉल में शामिल होगी?
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